कुछ लोग दिसोम गुरु के आंदोलन को राजनीतिक संघर्ष मात्र के रूप में देखते हैं.गुरु जी का आंदोलन बहु आयामी था.जमीन की लूट के विरुद्ध संघर्ष तो था ही,उसमें आदिवासी मूलवासियों के आर्थिक स्वावलंबन की भी बातें थी.शिक्षा,व्याप्त कुरीतियों के समाधान हेतु जागरूकता,हंडिया शराब नशापान के कारण हो रही बर्बादी,सब उनके अभियान का हिस्सा था.ज़ब भी उनके नेतृत्व में सरकार बनी उन्होंने आदिवासी मूलवासियों से संबंधित इन विषयों पर बहुत गंभीरता से काम किया,योजनाएं बनायी.समस्या की जानकारी के साथ उनके पास इनके समाधान का विज़न भी था,परवर्ती सरकारें आदिवासी विकास के गहन विमर्श पर उनकी दूरदृष्टि को ठीक से समझ नहीं पायी है,इसलिए आदिवासी विकास अब तक मृग मरीचिका बनी हुई है.अब भी वे कहीं जन समुदाय के बीच रहते हैं तो इन विषयों पर बात करते है,चिंता में रहते हैं कि राज्य में ग़रीबों आदिवासियों के विकास का लक्ष्य राज्य निर्माण के विमर्श के अनुरूप अभी भी अधूरा है,इस पर बहुत काम किया जाना अभी बाक़ी है.
जमींदारों,महाजनों,सूदखोरों द्वारा स्थानीय लोगों के विरुद्ध किए जा रहे अनवरत शोषण के विरुद्ध संघर्ष से इस सब की शुरुआत हुई.राजधानी के एक विद्यालय के विद्यार्थियों के लिए आयोजित वार्ता में वे बताते हैं कि असली गुरु अर्थात् शिक्षक उनके पिता थे.शिबू सोरेन के पिता सोभरन सोरेन एक शिक्षक थे और एक जागरूक नागरिक के रूप में वे जमींदारों द्वारा किए जा रहे शोषण अन्याय का पुरज़ोर विरोध करते थे.बताया जाता है कि जमींदारों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी.उस समय नौजवान शिबू सोरेन के पास इस सब के प्रतिकार के अलावा कोई चारा न था.और यहीं से उनके चीर संघर्ष की शुरुवात हुई,चीर संघर्ष इसलिए कि आज भी उनकी बातों में आदिवासियों का अपेक्षित विकास न होने की चिंता झलकती है.
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि आदिवासियों द्वारा मेहनत से तैयार किए जमीन पर नाना प्रकारेन अन्य द्वारा कब्जा किया जा रहा था,उन्हें अपनी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा था.अपनी जन्मस्थली रामगढ़ के आसपास के क्षेत्र से ही उन्होंने इस अन्याय और विरुद्ध स्थानीय लोगों को एकजुट कर आक्रामक संघर्ष आरम्भ किया. उनके लोगों ने कब्जा किए हुए जमीन पर लगे तैयार फसलों विशेष कर धान की फ़सल को काटना आरम्भ किया.यह आंदोलन धनकटनी आंदोलन के रूप में मशहूर हुआ.इस सब में हिंसा भी हुई और इस कारण तमाम शोषक तत्व,साथ ही उनके पृष्ठ पोषक भ्रष्ट सरकारी अमला क़ानून की बरतरी के नाम पर उनके पीछे लगा. आरम्भ से यह शोषण के विरुद्ध संघर्ष था,लेकिन उनकी दूरदर्शिता ने समस्या की जड़ की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया.शुरू से ही झारखंड अलग राज्य की माँग रही थी.उन्होंने भी महसूस किया कि यह क्षेत्र राजनीतिक रूप से एक उपनिवेश की तरह समझा जाता है,और इस समस्या से निज़ात तभी मिल सकेगी जब आदिवासी मूलवासी बहुल इस क्षेत्र को नए राज्य के रूप में गठित किया जाय,यहाँ के लोग अपने से अपने विकास की दशा और दिशा तय कर सकेंगे.इस आंदोलन को नई आग देने के निमित्त झारखंड मुक्ति मोर्चा नामक नए राजनीतिक दल का उन्होंने गठन किया जिसमें स्व विनोद बिहारी महतो,ए के रॉय उनके साथी थे,निर्मल महतो इनके युवा ऊर्जावान संगी बने.क्रमश:

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