दिसोम गुरु शिबू सोरेन;संत और महानतम झारखंडी
शिबू सोरेन झारखंड के महानतम जीवित व्यक्ति हैं.उनके जैसा व्यक्तित्व और कोई नहीं हो सकता. हम सभी के वे आदर्श हैं.मैं स्वयं झारखंड आंदोलन में रहा,कई दिनों तक जेल में भी रहा,बाद में उनके सानिध्य में बहुत अंतरंगता से कार्य करने का समय मिला ,इसलिए उनकी अब तक की जीवनयात्रा मेरे लिए वरण हम सब के लिए अनुकरणीय है.
मूलत: शिबू सोरेन शोषण के विरुद्ध संघर्ष की उपज हैं.वे अन्याय के विरुद्ध दलित आदिवासी संघर्ष के प्रतीक हैं,इसलिए झारखंड की जनता उन्हें पूजती है.क्या जनता,क्या नेता,पक्ष विपक्ष सभी द्वारा उनके महत्ता को दिल से स्वीकार किया जाता है.
झारखंड के बाहर भी देश भर का जनजाति समुदाय उन्हें आदिवासियों के उद्धारक के रूप में देखता है.शिबू सोरेन युगों में एक बार जनमते हैं.
उन क्षेत्रों में जहाँ आदिवासी विचरते हैं,लोलुप निगाहें हमेशा से लगी रही हैं.झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यह भी सच है कि यह धरती,जंगल पहाड़ और आदिवासियों की रही है.अंग्रेजों के भारत आने तक इस क्षेत्र की आबादी विरल थी.चहूँ ओर जंगल पर्वत थे और न जाने कहाँ से आदिवासी जनसंख्या ही पनपी.घाटियों से लेकर पहाड़ियों की चोटी,पठारों तक आदिवासी ही बसे.आज भी पठारी चोटियों में आदिवासी बसोवास मिल जाएगा,मानो किसी अनजानी शक्ति ने कहीं से उठा कर इन्हें यहाँ बसा दिया हो.शुरू में पहाड़ों में आजीविका झूम किस्म की खेतियाँ थी,शिकार के लिए खाने के काम आने वाले पशु पक्षियों की बहुतायत थी ही.आराम से आनंददायक जीवन चलते रहा.कुछ कुछ आबादी जंगली पेड़ों को काट कर खेत बथान बना कर तलहटी में भी रहना आरम्भ कर रही थी.दूसरी सहस्राब्दी के मध्य में कुछ बाहरी आगंतुकों का इस प्रदेश में प्रवेश शुरू हुआ,लगता है कुछ जागीरदार,जमींदारों के कारिंदे,व्यापारी वर्ग इस क्षेत्र में आए.अंग्रेजों के इस क्षेत्र में प्रभुत्व जमाने के बाद अंग्रेज़ी सत्ता ने अपनी आर्थिकी को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर झारखंड क्षेत्र के दोहन की योजना बनायी.पहले प्रयास के रूप में पहाड़ियों की तलहटी में पेड़ों की बड़ी मात्रा में कटायी कर खेत बनाने के लिए आदिवासियों को अगल बगल के क्षेत्रों से लाकर बसाया गया.
अंग्रेज़ों ने दरियादिली दिखाते हुए तत्कालीन भागलपुर क्षेत्र के जंगल पठार से भरे इलाक़े को दामिन ई कोह नाम दिया.इस क्षेत्र में मूलत: पहाड़िया नामक जनजाति पहाड़ों की पठारी चोटियों में पहले से रहती थी.तलहटी में जंगलों को साफ़ करने हेतु संथाल नामक अन्य जन जाति के लोगों को बसाया गया जो इस काम एवं अन्य श्रम साध्य कार्यों में माहिर थे.बताया जाता है कि इन लोगों को तत्कालीन रामगढ़ और बंगाल के बीरभूम मानभूम क्षेत्र से लाकर यहाँ बसाया गया.यह दरियादिली कुछ ही समय में खत्म हुई मालूम होती है,जब इस क्षेत्र के साधनों से अधिकाधिक लाभ लेने के लिए और संबंधित वसूलियों हेतु जमींदारों को अधिकृत किया.जमींदारों के वसूलीकर्ता कारिंदों ने कुछ ही समय में इस क्षेत्र में उत्पात का माहौल बरपा दिया,जिसका परिणाम अंततोगत्वा 1855 के संताल विद्रोह के रूप में हुआ,जिसे संतालों ने अपनी भाषा में हूल नाम से पुकारा और अब भी इस नाम से उद्वेलित होते रहते हैं.

सिदो कान्हू के नेतृत्व में लड़े गए इस भीषण विद्रोह,जिसमें हज़ारों संताल और मूलवासियों ने शहादत दी,के बाद संताल परगना नामक एक नये जिले का निर्माण तो हुआ,लेकिन कुछ दिनों बाद फिर संतालों के प्रति हिंसा,अन्याय और शोषण आरम्भ हो गया.आजादी के बाद मिले संवैधानिक अधिकार चिन्हित अनुसूचित जन जाति के रूप में प्रदत्त हैं,लेकिन विस्थापन,अनुसूचित क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था की सरकारों द्वारा अनदेखी,आदिवासियों के विकास के लिए आवश्यक सकारात्मक माहौल की कमी के कारण संतालों का अपने ही इलाके में भयंकर शोषण जारी रहा.विशेषकर जमींदारों एवं उनकी आड़ में पनपे महाजनों,सूदखोरों और सरकारी अमले,थानों के बिचौलिया,दलालों ने संताल इलाकों विशेषकर हजारीबाग से लेकर संताल परगना तक ग़लत रूप से स्थानीय लोगों विशेष रूप से आदिवासियों को अपनी ही जमीनों से बेदखल करना शुरू किया.इस परिदृश्य में शिबू सोरेन का आविर्भाव एवं ज़ुल्म,अन्याय,शोषण के विरुद्ध उनके द्वारा समर की शुरुआत एक युगांतकारी घटना है.क्रमश:
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